साल 1989 का लोकसभा चुनाव…
वैसे तो बवाल पिछले दो साल यानी 1987 से ही जारी था. बोफोर्स तोपों और पनडुब्बियों के घोटाले के आरोपों पर देशभर में हंगामा मचा हुआ था. राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ बगावत कर रक्षा मंत्री वीपी सिंह अपनी अलग सियासी लकीर पकड़ चुके थे. वे इमानदारी के पहरुए के रूप में देशभर में पदयात्राएं कर रहे थे. उनकी हर सभा में नारे लग रहे थे- राजा नहीं फकीर है भारत की तकदीर है…
वीपी सिंह के समर्थन में जनता दल परिवार भी पूरी तरह उतर चुका था. बिहार में लालू यादव तेजी से उभर रहे थे. विपक्षी मोर्चे को पूरा यकीन था कि बोफोर्स की आंच के कारण इस बार राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस अपना जनाधार खो देगी. इसी माहौल में साल 1989 के आम चुनाव हुए.
लालू यादव 1989 के इस चुनाव में बिहार के छपरा से सांसद चुनकर आए. वे अपनी आत्मकथा ‘गोपालगंज से रायसीना’ में इस दौर के कई अनसुने किस्सों का जिक्र करते हैं. लालू यादव लिखते हैं-
‘वी. पी. सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय मोर्चा ने आम चुनाव के बाद राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस को बेदखल कर दिया. देवीलाल राष्ट्रीय मोर्चा सरकार में उप प्रधानमंत्री बने, जिनमें कई पार्टियां थीं, और भाजपा और वामपंथी उसे बाहर से समर्थन दे रहे थे. यह एक अनूठी राजनीतिक व्यवस्था थी, जिसमें सरकार को समर्थन देने के लिए एक ही सिरे पर वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों थे. हम देवीलाल के शिविर में थे. लेकिन सरकार गठन के तुरंत बाद मतभेद शुरू हुए. देवीलाल ने वी. पी. सिंह के लिए हर समय असहज परिस्थितियां पैदा कीं. अंत में, देवीलाल को राजनीतिक व्यवस्था और मीडिया दोनों ने खलनायक की तरह देखा. हालांकि, तथ्य यह है कि देवीलाल ने प्रदानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा के बिना जनता के नेता के रूप में अपनी शुरुआत की थी. पदों ने उन्हें आकर्षित नहीं किया था. उन्हें यह भी पता था कि वी. पी. सिंह, जिन्होंने भ्रष्टाचार के मुद्दों पर राजीव के खिलाफ विद्रोह किया था और परिणास्वरूप, एक सार्वजनिक छवि प्राप्त की और वही प्रधानमंत्री पद के पसंदीदा उम्मीदवार थे.
लोगों के बार-बार भड़काने पर देवीलाल भी धीरे-धीरे इससे प्रभावित होने लगे और प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे. और इस प्रक्रिया में वह वी. पी. सिंह से काफी दूर चले गए. देवीलाल को जबरदस्त समर्थन के बावजूद मैंने प्रधानमंत्री पद के लिए वी. पी. सिंह का समर्थन किया. मैं यहां अवश्य कहना चाहूंगा कि बिहार में पार्टी नेता के रूप में वी. पी. सिंह मेरी उम्मीदवारी का बहुत समर्थन नहीं कर रहे थे, जिससे मेरे मुख्यमंत्री बनने की संभावना बनती. वी. पी. सिंह को लेकर मेरे इस निर्णय के पीछे कुछ ठोस वजह थी. वी. पी. सिंह ऐसा चेहरा था, जिसे देश ने कांग्रेस के खिलाफ स्वीकार कर लिया था. दूसरा, उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री को हराया था. और तीसरा, देवीलाल मुख्य रूप से ग्रामीण नेता के रूप में देखे गए थे और देशभर में स्वीकार्य नहीं थे.
प्रधानमंत्री पद के मुद्दे के समाधान के बाद नीतीश कुमार (बाढ़ के नवनिर्वाचित सांसद) और मैंने मंत्री बनने का प्रयास किया. हम अपनी ओर ध्यान खींचने की उम्मीद में प्रत्रानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के आसपास अपना सबसे अच्छा कुर्ता-पायजामा पहनकर घूमा करते थे. हालांकि, केंद्रीय मंत्री बनने की शुरुआती महत्वाकांक्षा जल्द ही खत्म हो गई. मेरा दिल बिहार में था, और मैंने अपने करियर को अपने गृह राज्य में समर्पित करने का संकल्प लिया, जिसने मुझे इतना कुछ दिया था.
(नीतीश कुमार और लालू यादव/ फोटो क्रेडिटः X@TejYadav14)
मार्च 1990 में विधानसभा चुनावों में जनता दल के नेतृत्व वाले गठबंधन ने कांग्रेस को हराकर 324 सदस्यीय बिहार विधानसभा में बहुमत से जीत हासिल की. मैं विधानसभा में विपक्ष का नेता बना और मैंने राष्ट्रीय राजनीति में जाने के विचार को त्याग दिया. मैं मुख्यमंत्री पद के लिए दावा करने के लिए पटना लौट आया. मैंने सोचा था कि जेपी आंदोलन के लिए और बिहार के लोगों के बीच बेहद लोकप्रिय, मैं स्थिति पर कब्जा करने और बिहार में क्रांतिकारी बदलाव करने के लिए उपयुक्त था, जो पिछड़ेपन, सामंतवाद और वंचितता में फंस गया था. इसके अलावा, विपक्ष के नेता के रूप में, मैंने खुद को जीत के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए एक स्वाभाविक दावेदार माना. लेकिन जिस तरह से मैंने सोचा था, यह उतना आसान नहीं था. जनता दल विधायक दल के नेता के पद के लिए एक चुनाव होना था. मार्च 1990 में बिहार पार्टी विधायक दल के नेता के रूप में दो दिग्गजों, रामसुंदर दास और रघुनाथ झा को पराजित करने के बाद ही मैं अंततः मुख्यमंत्री बन पाया.
विधायक दल के नेता के चुनाव में दो वरिष्ठ नेताओं को पराजित कर मैं मुख्यमंत्री चुना गया. मैं 42 वर्ष का था और तब तक समझने लगा था कि राजनीतिक खेल किस तरह खेला जाता है.
(प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते वीपी सिंह)
(लालू यादव/ फोटो क्रेडिटः गेटी)
चीजें इतनी आसान नहीं थीं. उप प्रधानमंत्री देवीलाल का मुझे समर्थन प्राप्त था, तो जनता दल विधायक के नेता के चुनाव में पर्यवेक्षक के रूप में आए जॉर्ज फर्नांडीज और कुछ अन्य नेताओं ने कुछ पेच फंसाने की कोशिश की. वे परदे के पीछे से काम कर रहे थे, लेकिन सामने आकर उन्होंने मेरा विरोध नहीं किया. मगर वे सफल नहीं हो सके. चंद्रशेखर और शरद यादव उन दिनों देवीलाल के करीब थे और उन लोगों ने मेरी दावेदारी का समर्थन किया और मुझे राज्य सरकार के नेतृत्व की कमान संभालने के लिए चुना गया.
लेकिन इसके बाद एकदम नई और पूरी तरह से अप्रत्याशित समस्या सामने आ गई. पता नहीं किन कारणों से राज्यपाल मोहम्मद यूनुस सलीम मुझे शपथ दिलाने के लिए राजी नहीं थे, जबकि मैं पार्टी विधायक दल का निर्वाचित नेता था. मैं रोजाना कलफदार कुर्ता पाजामा पहनकर उनके पास इस उम्मीद से जाता था कि शुभ अवसर आ गया है. लेकिन वे लगातार देर किए जा रहे थे. यहां तक कि वह मुझे मुख्यमंत्री पद की शपथ के लिए आमंत्रित किए बिना ही दिल्ली रवाना हो गए. मैं बेचैन और चिंतित हो रहा था. नेता बनने के बाद मेरे साथी विधायक मजबूती से मेरा साथ दे रहे थे. मैं राज्यपाल की इस देरी को समझने में नाकाम रहा.
मैंने उनसे आग्रह किया कि आपके पास मुझे शपथ दिलवाने के कोई और विकल्प नहीं हैं. सारे तरीके आजमाने के बाद आखिरकार सलीम के पास कोई और विकल्प नहीं बचा, तब उन्होंने 10, मार्च 1990 का दिन तय किया और मैं उस दिन मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला.’