शक्ति क्या है, शक्ति का स्वरूप कैसा है और वह किस रूप में रहती है? यह एक जरूरी सवाल विज्ञान का भी हिस्सा है और अध्यात्म का भी. विज्ञान कहता है कि शक्ति न तो पैदा हो सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है, इसे एक स्वरूप से दूसरे स्वरूप में बदला जरूर जा सकता है. विज्ञान में दी गई शक्ति की ये परिभाषा अध्यात्म से अलग नहीं है. बल्कि कहना ये चाहिए कि इस परिभाषा का आधार भी अध्यात्म ही है.
शक्ति, जो जीवन का सृजन करती है, अपनी ऊर्जा से उसका संचालन करती है, संतुलन बनाकर रखती है और फिर जब इस प्रक्रिया में असंतुलन होने लगता है तो शक्ति ही जीवन से अपनी ऊर्जा को खींच लेती है. इसे ही विनाश कह लीजिए, प्रलय कह लीजिए या फिर से होने वाली नई शुरुआत…शक्ति के परिवर्तन का यह चक्र हमेशा ही चलता रहता है. भारतीय अध्यात्म ने शक्ति को निराकार रूप में ही पहचाना है और ज्योति स्वरूप में इसकी आराधना की है. इस ज्योति को ही जब साकार शब्दों में पूजा गया तो उसे देवी, भवानी, मां, अंबा और दुर्गा कहकर पुकारा गया है. देवी के स्वरूप और शक्ति की अधिष्ठाता की इसी गाथा को पौराणिक कथाओं में दुर्गा सप्तशती के नाम से पिरोया गया है. इसमें 13 अध्याय हैं.
पहले अध्याय में राजा सुरथ और समाधि वैश्य के मोह का निस्तारण है और उन्हें शक्ति का रहस्य क्या है, इसका ज्ञान मिलता है. इसके साथ ही इस अध्याय में उस वक्त की कथा है, जब देवी शक्ति पहली बार भगवान विष्णु के आज्ञाचक्र से निकलकर प्रकट हुई थीं और मधु-कैटभ नाम के दो दैत्यों का संहार किया था. इसी सप्तशती का दूसरा अध्याय महिषासुर मर्दिनी की कथा कहता है. देवी भागवत पुराण में भी इस कथा का विस्तार से वर्णन किया गया है.
महर्षि मेधा ने राजा सुरथ के प्रश्नों के उत्तर देते हुए कहा कि, हे राजन, अभी तुमने यह जाना कि देवी पराशक्ति का निवास ब्रह्मांड के हर कण में हैं और वह सभी की आंतरिक शक्ति हैं. मधु-कैटभ के संहार में तुमने उनके भगवान विष्णु के आज्ञाचक्र से प्रकट होने की कथा सुनी. अब मैं तुम्हें उनके दिव्य विराट स्वरूप में प्रकट होने की कथा सुनाता हूं, साथ ही यह भी बताता हूं कि सभी देवताओं की आंतरिक शक्ति से कैसे देवी का निराकार स्वरूप साकार विराट रूप लेकर सामने आया. वह अष्टभुजा वाली और कई अस्त्र-शस्त्रों की धारिणी, सभी ज्ञान का स्त्रोत और संसार की सभी निधियां देने वाली देवी के रूप में कैसे प्रकट हो गईं.
देवी के इस रूप वर्णन से पहले तुम एक दुर्दांत दानव की कथा सुनो. महाराज दक्ष की एक पुत्री दनु का विवाह भी ऋषि कश्यप से हुआ था. इन्हीं कश्यप और दनु के दो पुत्र थे रंभ और करंभ. बचपन से ही ये दोनों बहुत शक्तिशाली थी और धीरे-धीरे इन्होंने अपना साम्राज्य बहुत बढ़ा लिया था, लेकिन दोनों की एक ही चिंता थी कि उनकी कोई संतान नहीं थी. इसलिए रंभ ने अग्नि के बीच बैठकर और करंभ ने जल में रहकर तपस्या शुरू की. एक दिन करंभ को जल में एक मगर ने खा लिया, भाई की मौत से दुखी रंभ ने उसी अग्नि में जलकर जान देने की कोशिश की, जिसमें वह तपस्या कर रहा था. जैसे ही उसने आग में कूदने का प्रयास किया कि अग्निदेव प्रकट हो गए और उन्होंने वरदान मांगने को कहा. रंभ ने अग्निदेव से त्रिलोक विजयी पुत्र का वरदान मांगा.
रंभ ने कहा, लेकिन मेरा विवाह नहीं हुआ है तो इतने शक्तिशाली पुत्र की माता कौन होगी? तब अग्निदेव ने कहा कि, वरदान लेकर अभी जब तुम घर लौटो तो मार्ग में जिस पर तुम्हें आसक्ति आ जाए, वही तुम्हारे पुत्र की माता बनेगी. ऐसा वरदान पाकर रंभ अपने घर को लौट पड़ा. उधर एक यक्षिणी, भैंस के रूप में धरती पर घूम रही थी. दरअसल वह एक यक्ष से बचने और छिपने के लिए धरती पर आकर भैंस बन गई थी. रंभ ने उस भैंस को देखा तो उस पर मोहित हो गया और उसके साथ संसर्ग किया. उधर, जब यक्ष को इसका पता चला तो उसने यक्षिणी को पाने के लिए रंभ पर हमला कर दिया. दोनों के बीच हुए युद्ध में रंभ मारा गया और यक्षिणी सती होने लगी. तब अग्निदेव ने उसके भ्रूण को बचा लिया और चिता की अग्नि से ही अट्हास करता हुआ आधा भैंसा और आधा नर वाला मायावी दानव प्रकट हुआ. यही दानव महिषासुर कहलाया.
यक्षिणी माता होने के कारण महिषासुर रूप बदल सकता था और बलशाली पिता के कारण वह त्रिलोक विजयी बन गया. महिषासुर दिनपर दिन क्रूर होता गया. उसने धरती पर विजय पाली, ऋषियों को सताने लगा और फिर अब वह इंद्रलोक की ओर बढ़ने लगा. विजय और अमरता का आशीष पाने के लिए महिषासुर ने ब्रह्मदेव की तपस्या की. कठिन तपस्या के कारण ब्रह्माजी को वरदान देने के लिए प्रकट होना ही पड़ा और उन्होंने महिषासुर से वरदान मांगने को कहा. महिषासुर ने वरदान में अमृत कलश मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने इससे मना कर दिया. तब उसने मृत्यु पर विजय मांगी, लेकिन ब्रह्माजी ने इससे भी इनकार कर दिया, तब बहुत सोचने पर महिषासुर ने वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु सिर्फ कुंवारी कन्या के हाथों ही हो. कुछ सोचकर ब्रह्मदेव ने दानव को यह वरदान दे दिया.
इस वरदान के बाद महिषासुर और भी निरंकुश हो गया और बिना समय गंवाए उसने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया. ब्रह्माजी के वरदान के कारण इंद्र का वज्र, अग्नि का पाश, वरुण के बाण और पवन देव के वेगवान अस्त्र-शस्त्र किसी काम के नहीं रहे, लिहाजा देवताओं को स्वर्ग से भागना पड़ा और दानवों का स्वर्ग पर भी अधिकार हो गया. युद्ध में हारे हुए देवता त्रिदेवों के पास पहुंचे और अपनी रक्षा के साथ, मानवता के कल्याण के लिए गुहार लगाने लगे. तब भगवान विष्णु ने कहा कि, अब वह समय आ गया है कि जब हम सभी अपने-अपने अंदर स्थिति उस पराशक्ति को पुकारें और उससे प्रकट होने के लिए कहें.
ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।
निश्चिक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥10॥
अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।
निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥11॥
अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।
ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्॥12॥
अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥13॥
त्रिदेवों के इस सुझाव को बाद देवताओं ने मिलकर एक साथ ओमकार की ध्वनि का उच्चारण किया और फिर हे आदिशक्ति, हे परम शक्ति, महा शक्ति, महाविद्या तुम प्रकट हो, प्रकट हो कहकर पुकार करने लगे. इस पुकार को सुनकर सभी देवताओं के हृदय से एक तेजपुंज निकला और एक साथ मिलकर प्रकाश की पर्वतनुमा आकृति में तब्दील हो गया. उसकी रौशनी के सामने करोड़ों सूर्य भी छोटे लगने. धीरे-धीरे यह प्रकाश पुंज मानवीय आकार लेने लगा. भगवान शिव के पुंज से चेहरा बना, विष्णुपुंज से भुजाएं बनीं. ब्रह्नाजी से चरण, यम से केश, चंद्रमा से स्तन, सूर्य से नेत्र, पृथ्वी से पृष्ठ भाग, वसुओं से अंगुलियां, कुबेर से नाक, संध्या से भौंहे और वायु से कान बने. इस तरह देवी का स्वरूप सामने आया.
ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्गुल्योऽर्कतेजसा।
वसूनां च कराङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥16॥
तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।
नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥17॥
भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।
अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥18॥
ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः॥19॥
अब सभी देवताओं ने उनका श्रृंगार किया और देवी को तमाम तरह के अस्त्र-शस्त्र दिए. शिवजी ने त्रिशूल, विष्णुजी ने चक्र, ब्रह्मदेव ने स्फटिक माल और कमंडल, समुद्र ने हर अंग के लिए दिव्य रत्न और आभूषण, कमल की फूलमाला, सूर्य ने मुकुट मणि, चंद्रमा ने घंटा, यम ने पाश और कालदंड, वरुण ने धनुष-बाण, इंद्र ने वज्र, विश्वकर्मा ने फरसा-कवच और भाला, अग्नि ने खप्पर, हिमालय पर्वत ने सवारी के लिए सिंह भेंट किया. इस तरह देवी अपने संपूर्ण विराट स्वरूप में निराकार से साकार रूप में सामने आईं.
तुष्टुवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।
दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥35॥
सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।
आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः॥36॥
अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः।
स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥37॥
तब देवताओं ने शक्ति की इस देवी की स्तुति की और उन्हें करुणामयी जानकर मां कहकर पुकारा और अंबे कहा. इस तरह शक्ति के रूप को अंबा नाम मिला. इसके बाद देवी अंबा ने ही देवताओं की करुण पुकार सुनकर उन्हें अभयदान दिया और यह आश्वासन दिया कि वह दानवों और आसुरी शक्तियों का विनाश करके संसार में धर्म की स्थापना करेंगी. यह कथा दुर्गासप्तशती के दूसरे अध्याय की है.