जीवन जीते हुए जिस बात का डर सबसे अधिक और स्थायी रूप से बना रहता है, वह है मृत्यु. जीवन के प्रति मोह ही ऐसा होता है कि हर जीने वाला सोचता यही है कि उसकी मृत्यु कभी न हो. इस डर के अलावा मृत्यु को लेकर कई तरह के रहस्य भी हमारे बीच जगह बनाए हुए हैं. जैसे, मृत्यु के बाद क्या होता है? शरीर में ऐसा क्या है जिसके निकल जाने से जीवन समाप्त हो जाता है और फिर वो तत्व या फिर ऊर्जा कहां चली जाती है? गीता तो कहती है कि पंच तत्वों का ये शरीर फिर से पंच तत्व में ही मिल जाता है. प्रकृतिः पंच भूतानि… पांच तत्वों से बनी प्रकृति फिर से पंच तत्वों में मिल जाती है. पुराण कथाओं में हर एक तत्व का मानवीकरण किया गया है. ठीक इसी तरह मृत्यु के देवता का मानवीकरण यम के रूप में हुआ है.
महाभारत एक ऐसी कथा रही है, जिसमें कई देवताओं के मानवरूप में जन्म का वर्णन मिलता है. हस्तिनापुर के निर्वासित राजा पांडु की पत्नी कुंती ने देवहूति मंत्र की सहायता से धर्मराज यम को बुलाया तब धर्मराज ने अपने अंश से एक पुत्र के जन्म का वरदान दिया. इसी वरदान से कुंती ने युधिष्ठिर को जन्म दिया जो कि धर्मराज कहलाए. युधिष्ठिर का धर्म इतना पवित्र और सत्य था कि कुरुक्षेत्र में उनका रथ धरती से चार अंगुल ऊपर उठकर चलता था.
महाभारत में धर्मराज के धर्म के विषय में एक कथा भी दर्ज है, जो कि उनके बचपन की है. अपने चारों भाइयों और 100 कौरव भाइयों के साथ युधिष्ठिर आचार्य द्रोण की पाठशाला में अध्ययन कर रहे थे. एक दिन आचार्य द्रोण ने उन्हें एक सूक्ति याद करने को दी. सूक्ति थी, ‘सत्यं वद् धर्मं चर्. यानि सत्य बोलो और धर्म पर चलो. सभी छात्रों ने इस सूक्ति को पलभर में याद करके गुरुदेव को सुना दिया, लेकिन जब युधिष्ठिर की बारी आई तब वह मौन रहे. लगातार कई बार पूछने पर भी वह नहीं बोले, मौन ही रहे.
तब द्रोणाचार्य ने पूछा कि, युधिष्ठिर क्या ये सरल सा वेद वाक्य तुम्हें सच में याद नहीं है. इस पर युधिष्ठिर ने कहा, कि मैंने और मेरे भाइयों ने आज खेल-खेल में चीटियों के एक दल को उनकी कतार से अलग कर दिया. अब मैं सोचता हूं कि क्या हमने यह धर्म किया? फिर उन्होंने कहा कि अगर यह अधर्म था तो फिर हमने सत्य कहां बोला? गुरु द्रोण अपनी सिखाई जा रही इस सूक्ति के इतने गहरे रहस्य को सुनकर बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने कहा कि, अर्जुन मेरा श्रेष्ठ धनुर्धर शिष्य है, लेकिन मेरी शिक्षाओं को सही अर्थ में स्वीकारने वाले उत्तराधिकारी तुम ही हो. युधिष्ठिर ने अपने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला. उन्होंने ‘सत्यं वद् धर्मं चर्’ के वेद वाक्य का मान हमेशा रखा.
लाक्षागृह से बचकर निकलने के बाद पांडव खुद को छिपाते हुए रह रहे थे. इस दौरान वह एक गांव में पहुंचे, जिसका नाम एकचक्रा नगरी था. वहां सभी पांडव किसी घर में आश्रय मांगने के लिए घूम रहे थे. चलते-चलते वह एक कुम्हार के द्वार पर पहुंचे और उससे आश्रय मांगा. कुम्हार ने पूछा कि तुम कौन हो. युधिष्ठिर ने कहा कि मैं एक यात्री हूं. कुम्हार ने कहा कि यह तो अधूरा उत्तर है. अधूरा उत्तर भी एक पूरे झूठ के बराबर ही होता है. युधिष्ठिर ने कहा कि, आपने सत्य ही कहा है, इसलिए अगर भविष्य में जब मुझे सच न बताना होगा तो मैं कोई उत्तर नहीं दूंगा, मौन रहूंगा. इस प्रकरण के बाद से हर एक जगह पर भीम आगे रहने लगे, वही इस तरह की स्थिति में परिस्थिति के अनुसार ही उत्तर देते थे और कई बार उनके भीमकाय शरीर को देखकर कोई उनसे अधिक प्रश्न भी नहीं करता था.
अज्ञातवास के समय भी यह समस्या आयी कि सभी पांडव अपना छद्म नाम रखकर रहेंगे. ऐसे में अर्जुन तो वृहन्नला बन गए और नृत्य सिखाने लगे. द्रौपदी बनी सैरेंध्री जो कि एक यक्षिणी का नाम था. भीम रसोइया वल्लभ बन गए और नकुल सहदेव ग्रंथिक और तंतिपाल बनकर गाय और घोड़े चराने लगे. अब समस्या युधिष्ठिर के लिए थी, क्योंकि अगर वह छद्म नाम रखते तो झूठ होता. इसका हल द्रौपदी ने निकाला. उसने कहा कि, हर ब्याहता स्त्री को ये अधिकार होता है कि वह एकांत के समय में अपने पति को किसी प्यार भरे नाम से पुकार सकती है. मैं आपको एकांत के उसी क्षण का नाम कंक देती हूं. इस तरह युधिष्ठिर कंक बन कर चौपड़ सिखाने वाले बन गए. इन छद्म नामों के साथ जब वे राजा विराट के दरबार में पहुंचे तो भीम ने उनका परिचय कराया. पांडवों ने राजा विराट की नगरी में अज्ञातवास का एक वर्ष बिताया.
युधिष्ठिर पर जीवन भर सिर्फ एक झूठ का कलंक लगा है, वह है द्रोणाचार्य की मृत्यु के लिए बोला गया झूठ. युद्ध के 15वें दिन भीम ने अश्वत्थामा नाम के एक हाथी को मार गिराया. इसके बाद सारी सेना में शोर मचा दिया कि अश्वत्थामा मारा गया. यह शोर द्रोणाचार्य के कानों तक भी पहुंचा. चूंकि अश्वत्थामा के माथे पर अमरमणि लगी थी, इसलिए उसकी मृत्यु तबतक नहीं हो सकती थी. फिर भी द्रोणाचार्य ने सोचा कि जब इच्छामृत्यु के वरदान वाले भीष्म मार गिराए गए तो इस युद्ध में कुछ भी हो सकता है. इसलिए वह युधिष्ठिर से पूछने गए. उन्होंने पूछा, अश्वत्थामा मारा गया. युधिष्ठिर ने कहा , अश्वत्थामा हतः नरो वा कुंजरो वा. युधिष्ठिर ने जब ये बोला कि अश्वत्थामा मारा गया, इतना तो द्रोणाचार्य ने सुना, लेकिन जब उन्होंने बाद का हिस्सा ‘परंतु नर या हाथी’ बोलना चाहा… तभी श्रीकृष्ण ने विजयघोष का शंख बजा दिया. गुरु द्रोण पूरी बात नहीं सुन पाए और अधूरे सच को ही पूरा मानकर शोकग्रस्त हो गए. इसी समय दृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका गला काट दिया और गुरु द्रोण मारे गए. इस अधूरे सच का कलंक ही युधिष्ठिर पर लगा, जिसके दोष के कारण उन्हें एक क्षण का नर्क भोगना पड़ा था. धर्मराज युधिष्ठिर के रूप में यमराज का पूरा जीवन ही धर्म और सत्य का पालन करते हुए बीता. यह तथ्य इस बात का साक्षी है कि मृत्यु सिर्फ लगती डरावनी है, लेकिन उसका सही स्वरूप धर्म और सत्य का है. इसमें किसी के प्रति कोई भेदभाव नहीं है, बल्कि धर्म और सत्य के जरिए मृत्यु को भी जीता जा सकता है और मोक्ष का पा सकते हैं, जिसके बाद न तो फिर से जन्म लेना पड़ता है और न मृत्यु होती है.
मृत्यु को जीतने की एक और कहानी जिसका जिक्र महाभारत के ही वनपर्व में होता है. वनवास के दौरान युधिष्ठिर और द्रौपदी ऋषियों-मुनियों के साथ सत्संग कर रहे थे. इसी दौरान एक ऋषि ने धर्मराज और द्रौपदी को सावित्री-सत्यवान की कथा सुनाई. सावित्री और सत्यवान की कथा सबसे पहले महाभारत के वनपर्व में मिलती है. जब युधिष्ठिर मारकण्डेय ऋषि से पूछते हैं कि क्या कभी कोई और स्त्री थी जिसने द्रौपदी जितना भक्ति प्रदर्शित की, तब मार्कण्डेय ऋषि उनको विस्तार से सावित्री की कथा सुनाते हैं.
एक समय राजर्षि अश्वपति धर्म के साथ प्रजा पालन करते थे. उनकी एकमात्र कन्या थी सावित्री. सावित्री ने अपने वर के रूप में निर्वासित और वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को चुन लिया, लेकिन देवर्षि नारद ने उनसे कहा कि सत्यवान की आयु केवल एक वर्ष की ही शेष है तो सावित्री ने बड़ी दृढता के साथ कहा- जो कुछ होना था सो तो हो चुका. माता-पिता ने भी बहुत समझाया, परन्तु सती अपने धर्म से नहीं डिगी.
सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह हो गया. सत्यवान बड़े गुणी, धर्मात्मा, माता-पिता के भक्त एवं सुशील थे. सावित्री राजमहल छोड़कर जंगल की कुटिया में आ गयी. आते ही उसने सारे वस्त्राभूषणों को त्यागकर सास-ससुर और पति जैसे वल्कल वस्त्र पहने और अपना सारा समय अपने अन्धे सास-ससुर की सेवा में बिताने लगी. इधर सत्यवान की मृत्यु का दिन निकट आ पहुंचा.
सत्यवान अग्निहोत्र के लिए जंगल में लकड़ियां काटने जाया करते थे. आज सत्यवान के प्राण छूटने का दिन था, इसलिए सावित्री ने भी साथ चलने के लिए आग्रह किया. बहुत जिद करने पर सत्यवान, सावित्री को लेकर अपने साथ जंगल की ओर गया. सत्यवान लकड़ियां काटने वृक्षपर चढ़े और चक्कर आते ही गिर पड़े. सावित्री सब जानती थी, इसलिए वह विचलित नहीं हुई, उसने खुद को संभाला और पति का सिर अपनी गोद में रखकर सावित्री उन्हें अपने आंचल से हवा करने लगी.
थोड़ी देर में ही उसने भैंसे पर चढ़े, काले रंग के सुन्दर अंगोंवाले, हाथ में फांसी की डोरी लिए हुए, सूर्य के समान तेजवाले एक भयंकर देव-पुरुष को देखा. उसने सत्यवान के शरीर से फांसी की डोरी में बंधे हुए अंगूठे के बराबर पुरुष को बलपूर्वक खींच लिया. सावित्री ने अत्यन्त व्याकुल होकर आर्त स्वर में पूछा- हे देव! आप कौन हैं और मेरे पति को कहां ले जा रहे हैं? उस पुरुष ने उत्तर दिया- हे तपस्विनी! तुम पतिव्रता हो, अत: मैं तुम्हें बताता हूं कि मैं यम हूं और आज तुम्हारे पति सत्यवान की आयु क्षीण हो गई है, इसलिए मैं उसे ले जा रहा हूं. तुम्हारे सतीत्व के तेज के सामने मेरे दूत नहीं आ सके, इसलिए मैं स्वयं आया हूं. यह कहकर यमराज दक्षिण दिशा की तरफ चल पड़े.
सावित्री भी यम के पीछे-पीछे जाने लगी. यम ने बहुत मना किया. सावित्री ने कहा- जहां मेरे पतिदेव जा रहे हैं वहां मुझे जाना ही होगा. यह सनातन धर्म है. यम बार-बार मना करते रहे, फिर भी सावित्री पीछे-पीछे चलती गई. उसकी इस दृढ निष्ठा और पातिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर यम ने उससे वरदान मांगने को कहा. पहले वर में सावित्री ने अंधे सास-ससुर के लिए आंखें मांग लीं, दूसरे वर में उन्होंने खोया हुआ राज्य दिया और फिर सत्यवान को लेकर जाने लगे. सावित्री फिर से पीछे-पीछे चलने लगी. तब यमराज ने फिर कहा कि सत्यवान को छोड़कर चाहे जो मांग लो, सावित्री ने कहा-यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे सत्यवान से सौ पुत्र प्रदान करें. यम ने बिना ही सोचे तथास्तु कह दिया. वचनबद्ध यमराज आगे बढ़े. सावित्री ने कहा- मेरे पति को आप लिए जा रहे हैं और मुझे सौ पुत्रों का वर दिए जा रहे हैं. यह कैसे सम्भव है? मैं पति के बिना सुख, स्वर्ग और लक्ष्मी, किसी की भी कामना नहीं करती. बिना पति मैं जीना भी नहीं चाहती. वचनबद्ध यमराज ने सत्यवान के प्राण लौटा दिए और सत्यवान को चार सौ वर्ष की नवीन आयु भी प्रदान की.
उत्तर भारत में ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को बरसाइत या वट सावित्री व्रत की पूजा की जाती है. ये व्रत और पूजा सावित्री के उसी त्याग और तप को याद रखते हुए किया जाता है. विवाहित महिलाएं बरगद वृक्ष की पूजा करती हैं और माना जाता है कि इससे पति की लंबी आयु के साथ घर-परिवार की समृद्धि बनी रहती है.
जो मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को सत्यवान की कथा सुना रहे थे, खुद उनके जीवन का भी एक प्रसंग ऐसा है, जहां मृत्यु के देवता यम को उनसे हार माननी पड़ी थी. असल में मार्कण्डेय ऋषि अल्पायु थे. एक दिन सप्तऋषि उनके घर आए. बालक मार्कण्डेय ने पिता के साथ सप्तऋषियों का खूब सत्कार किया. प्रसन्न सप्तऋषि जाते हुए एक-एक कर के उसे आयुष्मान भवः का आशीष देते रहे. छह ऋषि ऐसा आशीर्वाद दे चुके तब आखिरी में अगस्त्य ऋषि खड़े थे. बालक ने उनके चरण स्पर्श किए. ऋषि ने प्यार से उसके माथे पर हाथ फेरा ही था कि उनकी नजर बालक के ललाट पर पड़ गई और वह चकित रह गए. उन्होंने कहा कि, सप्तऋषियों ने इस बालक को 6 बार आयुष्मान होने का वरदान दिया है, यह तो प्रकृति के विपरीत है. बालक तो अल्पायु है. इससे बालक के पिता चिंतित हो गए.
तब ऋषि अगस्त्य ने कहा कि, सप्तऋषियों के वचन झूठे नहीं हो सकते, हो सकता है महादेव की ऐसी ही इच्छा रही हो. इसके बाद ऋषि अगस्त्य ने बालक को ओम नमः शिवाय का मंत्र दिया और चले गए. 12 वर्ष की अवस्था पूरी हो जाने पर एक दिन जब यमराज बालऋषि के प्राण लेने आया तो मार्कण्डेय जाकर शिवलिंग से ही चिपक गए और पंचाक्षरी मंत्र का जाप करते रहे. बहुत कोशिश करते हुए भी जब यमराज बालक के प्राण नहीं खींच पाए तो उन्होंने पाश का प्रयोग किया. ऐसा होते ही शिव वहां साक्षात प्रकट हो गए और यमराज से उनके प्राण लौटाने को कहा. शिव इच्छा से यमराज को ऐसा करना पड़ा. इसके बाद ही ऋषि मार्कण्डेय ने महादेव से महामृत्युंजय मंत्र लेकर उसका जाप कर उसे सिद्ध किया. मृत्यु को लौट जाना पड़ा.
महाभारत में ही विदुर को भी धर्म का ही अंश बताया जाता है. कहते हैं कि द्वापर युग के बीच में ही जब कलयुग बिना अपना युग आए घुसपैठ करने लगा तब अधर्म का प्रभाव कम करने के लिए धर्म ने विदुर के रूप में जन्म लिया. विदुर ने पूरे जीवन निजी हित में कुछ भी नहीं किया. हस्तिनापुर जैसे महान राज्य के मंत्री होने के बावजूद वह विलासिता भरा जीवन नहीं जीते थे. इसकी बानगी तब देखने को मिलती है, जब शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर गए श्रीकृष्ण विदुर के घर ठहरते हैं और उनके घर भोजन करते हैं. विदुर जी की पत्नी ने सामान्य साग-रोटी बनाकर श्रीकृष्ण का स्वागत किया. महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद युधिष्ठिर के राजा बनने से पहले उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए और उनकी आत्मा की ज्योति युधिष्ठिर में ही समा गई थी.
जन्म और मृत्यु के बीच जो भी रहस्य हों, लेकिन एक बात तो हर धर्म में ही कही जाती है मृत्यु आखिरी सत्य है, लेकिन ये समाप्ति नहीं है, बल्कि आत्मा के लिए ये एक नई यात्रा की शुरुआत है. मृत्यु के देवता यम इसी यात्रा को निर्धारित करते हैं. हम अपने दुख और शोक की वजह से यम को भयंकर जरूर समझते हैं, लेकिन यम तो सिर्फ जीवात्मा की अनंत यात्रा के केवल सच्चे सहायक भर हैं. वह समय चक्र के ही मात्रक हैं और जीवन जीने की पद्धति सिखाने वाले गुरु भी. दीपावली के दिनों में घर के बाहर यम का दीपक जलाते हुए उनसे इसी ज्ञान की कामना करते हुए और अकाल मृत्यु के भय को दूर करने के लिए यमराज की प्रार्थना करते हैं. इस दौरान मंत्र कहते हैं- मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह। त्रयोदश्यां दीपदानात्सूर्यज: प्रीतयामिति.’
हे यम! तुम अकाल मृत्यु के पाश से हमें मुक्त करो और हमारा कल्याण करो.