राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें अपने पहले सरकार्यवाह के तौर पर जानता है. नाम था बालाजी हुद्दार. 1902 में आज के मध्य प्रदेश के मंडला में पैदा हुए थे. नाम रखा गया था गोपाल मुकुंद हुद्दार, लेकिन दुनिया भर के कम्युनिस्ट उन्हें जॉन ‘स्मिथ’ के नाम से ज्यादा जानते हैं. कभी संघ संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार के नंबर 2 यानी सरकार्यवाह के तौर पर उन्हें चुना गया था. अगर वो उसी निष्ठा के साथ जुड़े रहते तो गुरु गोलवलकर की जगह दूसरे सरसंघचालक होते. लेकिन आज उन्हें एबी वर्धन जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के गाइड के तौर पर जाना जाता है. नागपुर के वर्धन बाद में सीपीआई के महासचिव बने.
कहा जाता है कि नागपुर के धनी ऊधोजी परिवार की एक विधवा ने उन्हें बचपन में डूबने से बचाया था. फिर दोनों का ऐसा लगाव हुआ कि उन्होंने गोपाल को गोद ले लिया और नागपुर ले आईं. तब उनकी उम्र थी महज चार वर्ष. नागपुर से ग्रेजुएशन कर एक गर्ल्स मिशन स्कूल में पढ़ाने भी लगे. फिर छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए. पहले डॉ. बीएस मुंजे, फिर डॉ. हेडगेवार के संपर्क में आए. पढ़ने लिखने वाले भी थे और युवाओं के बीच पकड़ भी थी. जब 9-10 नवम्बर 1929 में संघ के पहले पदाधिकारी के तौर पर तीन नाम घोषित किए गए तो उनमें दूसरा नाम बालाजी हुद्दार का ही था. उन्हें सरकार्यवाह (महासचिव) बनाया गया था और सेना से रिटायर्ड मार्तंड राव जोग को सर सेनापति.
लेकिन संघ की स्थापना का जो उद्देश्य था, डॉ हेडगेवार की जो योजना थी, वो यूं ही नहीं बनी थी कि कभी भी आप कुछ भी करने लग जाओ. उसका पहला चरण ही था कि देश भर में देशभक्त युवाओं का संगठन खड़ा करना, जो प्राचीन भारत की परम्पराओं, संस्कृति में विश्वास रखते हों. शुरूआत में ही तय था कि संघ एक संगठन के तौर पर किसी भी आंदोलन में भाग नहीं लेगा लेकिन आजादी के आंदोलन या अन्य किसी आंदोलन, विरोध प्रदर्शन में अगर कोई स्वयंसेवक भाग लेना चाहता है, तो वो संघ की अनुमति से ले सकता है. इसलिए जब सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान खुद डॉ हेडगेवार ने जंगल सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने का निर्णय किया तो सबसे पहले सरसंघचालक का पद छोड़ दिया और अपनी जगह डॉ. परांजपे को ये जिम्मेदारी देकर गए. उनसे स्वयंसेवकों ने कहा भी कि हम संघ के गणवेश में चलेंगे, लेकिन उन्होंने साफ किया कि संघ किसी आंदोलन में भाग नहीं लेगा. हम कांग्रेस के आंदोलन में हैं और बिना गणवेश के ही जाएंगे.
ऐसा ही फैसला सावरकर व हिंदू महासभा के निजाम के खिलाफ आंदोलन में लिया गया था. खुद संघ के कई वरिष्ठ अधिकारियों ने व्यक्तिगत तौर पर उसमें हिस्सा लिया. डॉ हेडगेवार के भतीजे को तो जेल तक हो गई थी, लेकिन संघ ने एक संगठन के तौर पर उस आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया. इसके लिए संघ की आलोचना भी हुई थी, फिर भी डॉ हेडगेवार दृढ़ बने रहे. वैसे भी क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े रहने के दौरान उन्हें समझ आ गया था कि किसी भी क्रांतिकारी संगठन को ज्यादा दिनों तक नहीं चलाया जा सकता क्योंकि कभी ना कभी हिंसात्मक कार्रवाइयों में रहने के चलते उनको सरकार निशाना बना सकती है. तो शायद ही कांग्रेस का कोई आंदोलन हो जिसमें स्वयंसेवकों ने भाग ना लिया हो, लेकिन संगठन के तौर पर संघ अपनी बात पर कायम रहा और आज भी उसके स्वयंसेवक विभिन्न संगठनों के बैनर तले ही भाग लेते हैं.
लेकिन शायद बालाजी हुद्दार इतना सब्र रखने के लिए तैयार नहीं थे कि देश के कोने-कोने में संगठन खड़ा किया जाए. उसमें तो दशकों लगने थे. सो उन्होंने संघ का पद दो साल से भी कम समय में छोड़ दिया. वैसे भी 27 साल की उम्र में इतने बड़े पद की जिम्मेदारी समझना आसान नहीं था. फिर उनका नाम 1931 में बालाघाट राजनीति डकैती केस में आया. क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए हथियार खरीदने थे और उसके लिए उन्होंने कुछ हथियारबंद साथियों के साथ कुछ जमींदारों के घर डाका डाला. सभी को तीन से पांच साल की सजा हुई. अगर पद पर रहते उनको ये सजा हुई होती, तो शायद संघ के लिए भी मुश्किल हो जाती. यही बात नाना पालेकर ने ‘हेडगेवार चरित’ में लिखी है.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
1935 में नागपुर जेल से बालाजी हुद्दार की रिहाई हुई और उन्होंने ‘सावधान’ पत्र का सम्पादन शुरू कर दिया. अचानक बालाजी को लगा कि उन्हें पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए लंदन जाना चाहिए. इस काम में उनकी मदद डॉ हेडगेवार ने भी की. लेकिन लंदन से बालाजी स्पेन चले गए. उनके सम्पर्क में वामपंथी विचारधारा के लोग आ चुके थे और उनके मन में दुनिया भर में उनकी लड़ाई लड़ने की जिद सवार हो चली थी.
बालाजी से बन गए जॉन स्मिथ
उन दिनों भारतीय छात्रों पर नजर रख रही ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआई5 की बाद में खुली क्लासीफाइड फाइल्स बताती हैं कि वो खुद भी विचाधाराओं के बीच झूल रहे थे. एक तरफ एमआई5 उन्हें लेफ्ट विचारधारा से प्रभावित बता रही थी, दूसरी तरफ एक मराठी पत्र में वो RSS का संगठन पूरे एशिया भर में फैलाने के उद्देश्य के बारे में लिख रहे थे. उन्होंने लौटकर संघ से दोबारा जुड़ने के विषय में भी लिखा था. स्पेन में उन दिनों गृह युद्ध चल रहा था, एक लोकतांत्रिक सरकार की मांग उठ रही थी. जनरल फ्रांको की सेना ने उन्हें पकड़ लिया. यहां बालाजी ने अपना नाम भी ‘जॉन स्मिथ’ रख लिया था. बालाजी को लेफ्ट की इंटरनेशनल ब्रिगेड (आईबी) ने इंग्लैंड में मारे गए भारतीय कम्युनिस्ट शापूरजी सक्लावाला के नाम से बनी ब्रिटिश बटालियन का सदस्य बना दिया.
बालाजी की किस्मत देखिए, इंग्लैंड की तरफ से युद्धबंदियों को छुड़ाने की वार्ता करने जो रिटायर्ड कर्नल स्पेन भेजा गया, उसका बेटा भी वहां बंदी था, और रिटायरमेंट से पहले वह नागपुर के पास ही तैनात था. बालाजी ने उसे अपनी सच्चाई बताई और नागपुर कनेक्शन काम कर गया और लंदन वापसी हो गई. लेकिन रिहाई के बाद पहले लंदन और फिर बम्बई के कम्युनिस्ट जगत में बालाजी हुद्दार का जोरदार स्वागत हुआ और खूब चर्चा हुई. बारिसाल से नागपुर आकर बसे एबी वर्धन जैसे युवाओं के लिए तो वो हीरो बन गए. बाद में एबी वर्धन सीपीआई के महासचिव पद पर पहुंचे थे.
डॉ हेडगेवार ने संघ शिविर में भाषण के लिए बुलाया
इसके डॉ हेडगेवार का एक बयान हुद्दार के खिलाफ नहीं मिलता है. संघ के बड़े विचारक एच वी शेषाद्रि लिखते हैं कि, “By the end of December 1938, Balaji Huddar, a close friend and associate of Doctorji in former days, returned from Spain. Doctorji had taken great pains to send him to England, from where he had gone to Spain. When, however, he returned to Bharat, he had turned a leftist. But it made no difference so far as Doctorji’s friendly attitude towards him was concerned.”
नाना पालेकर भी लिखते हैं कि कैसे 24 दिसम्बर 1938 को जब बालाजी हुद्दार नागपुर लौटे तो खुद डॉ हेडगेवार उन्हें लेने रेलवे स्टेशन पहुंचे. उसके बाद भी दोनों की कई मुलाकात हुईं. लेकिन डॉ हेडगेवार ने महसूस किया कि इतने सालों में बालाजी के विचार पूरी तरह बदल चुके हैं. डॉ हेडगेवार ने कहा भी था कि हालांकि हमारे विचार अब अलग हैं, लेकिन बालाजी ने ये दोस्ती तोड़ने के बारे में कभी नहीं सोचा था.
डॉ हेडगेवार एक कदम आगे और बढ़ गए, उन्होंने नागपुर जिले के स्वयंसेवकों के एक शिविर में बालाजी हुद्दार को आमंत्रित भी किया ताकि इतने साल के विदेशों में अपने अनुभवों को स्वयंसेवकों के साथ बांट सकें. बालाजी ने शिविर में मजदूरों और किसानों की यूनियन और उनके आंदोलनों की चर्चा की. बाद में संघ प्रमुख ने बालाजी से अनौपचारिक बातचीत में बस इतना कहा कि मजदूरों और किसानों की समृद्धि का विषय संघ में चर्चा के लिए उपयुक्त विषय है, लेकिन हमारी भाषा अमीर और गरीब के बीच संघर्ष की नहीं होनी चाहिए.
नेताजी बोस को लेकर हुद्दार ने खड़ा कर दिया था विवाद
डॉ हेडगेवार के निधन के 39 साल बाद 7 अक्तूबर 1979 को इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में छपे लेख ‘RSS and Netaji’ में बालाजी हुद्दार के हवाले से डॉ हेडगेवार पर एक सनसनीखेज आरोप लगाया गया. बालाजी ने कहा था कि मैंने नेताजी बोस की तरफ से डॉ हेडगेवार को मिलने को कहा था, लेकिन डॉ हेडगेवार ने ये कहकर मना कर दिया कि मैं इतना बीमार हूं कि बिस्तर से उठ भी नहीं सकता. बालाजी के हवाले से इस खबर में दावा किया गया कि कि हेडगेवार नेताजी बोस से मिलने के इच्छुक ही नहीं थे. उन्होंने ये तक लिखा कि हम जब कमरे से बाहर आए और संघ कार्य़कर्ता अंदर घुसे और हंसी ठहाके शुरू हो गए.
बालाजी के इस बयान के आधार पर वामपंथी कहते हैं कि कांग्रेस से इस्तीफे के बाद सुभाष आजाद हिंद फौज जैसा कोई संगठन खड़ा करने में लगे थे और इस काम में संघ की मदद लेना चाहते थे लेकिन संघ ने मना कर दिया. लेकिन हेडगेवार चरित में नाना पालेकर ने बताया है कि कैसे देवलाली में उन दिनों डॉ हेडगेवार काफी बीमार थे. यहां तक कि लगातार गुरु गोलवलकर ही एक नर्स की तरह उनकी सेवा कर रहे थे. रात भर जाग जागकर उन्हें दवाएं देते थे. ऐसे में बालाजी के साथ डॉ वसंत रामराव संजगिरि आए और नेताजी बोस से डॉ हेडगेवार के मिलने का समय मांगने लगे. उन्होंने कहा कि दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ चुका है, ब्रिटिश सरकार उसमें व्यस्त है. ये सही समय है कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक विद्रोह कर उसे उखाड़ फेंका जाए.
गंभीर बीमार होने के बावजूद डॉ हेडगेवार ने उन्हें सुना और कहा, ये सही है कि वातावरण बड़ा ही अनुकूल है. लेकिन क्या हम आजादी की लड़ाई को तैयार हैं? शुरू करने के लिए हमें कम से कम 50 प्रतिशत तो तैयार होना ही चाहिए. सुभाष चंद्र बोस के पास कितनी क्षमता है? अगर हम आंशिक भी तैयार नहीं हैं तो हम दूसरों के समर्थन के भरोसे पर निर्भर नहीं रह सकते”. इस बयान में कहीं इनकार नहीं है, बल्कि संभावना है और नेताजी बोस की क्षमता की बात इसलिए क्योंकि अब वो कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं थे और तब तक आजाद हिंद फौज का नेतृत्व उन्हें रासबिहारी बोस ने सौंपा नहीं था.
डॉ हेडगेवार ने उन्हें चलते चलते कहा था कि, “नागपुर आएं, तब हम बिना किसी व्यवधान के इस पर चर्चा कर सकते हैं. ये घटना 8 या 9 जुलाई 1939 की है. बालाजी को छोड़कर शायद सभी ने इसे निमंत्रण की तरह ही लिया. जब इन लोगों ने बम्बई आकर नेताजी बोस से नागपुर जाने की चर्चा की तो उनके कहने पर डॉ संजगिरी ने एक पत्र डॉ हेडगेवार को 12 जुलाई को लिखा और उसमें नागपुर बुलाने के लिए धन्यवाद दिया और कहा कि नागपुर आना नेताजी का अभी किसी वजह से संभव नहीं है, डॉ साहब अगर 20 जुलाई को बम्बई आ सकें तो बेहतर होगा. 20 की रात को नेताजी बम्बई से निकल जाएंगे. लेकिन ये पत्र ही डॉ हेडगेवार को 6 दिन बाद 18 को मिला और उनकी तबियत इतनी अच्छी नहीं हुई थी कि वो दूर का सफर कर पाते.
बालाजी 1938 में नागपुर आकर कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ गए थे, फिर 1949 में उससे भी मोहभंग हो गया तो 1952 में उससे भी इस्तीफा दे दिया, फिर आध्यात्म में मन रमाने लगे. उनकी मौत जरूर 1983 में हुई, लेकिन वे सक्रिय नहीं थे. अपने इतिहास से जुड़े सभी अभिलेखों में बालाजी हुद्दार का नाम संघ ने कभी छुपाया नहीं है औऱ ना ही कभी बालाजी को लेकर किसी ने कुछ भी गलत बोला है.
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