‘वक्त रहता नहीं कहीं टिक कर,
आदत इस की भी आदमी सी है…’
गुलजार की ये नज्म टिक-टिक करतीं घड़ियों की सुइयों और हम इंसानों के जीवन के जुड़े तार को बखूबी दर्शाती हैं. लेकिन सोचिए अगर दुनिया की सभी घड़ियां एक साथ मिला दी जाएं तो क्या होगा? बड़ी गड़बड़ी हो जाएगी न? जैसे किसी के यहां 5 बजे सुबह होगी तो किसी के यहां 5 बजे दोपहर तो किसी के यहां 5 शाम. धरती इतनी बड़ी है कि हमारे देश में अभी अगर सुबह हो रही है तो इसी धरती पर कहीं रात, कहीं शाम, कहीं दोपहर तो कहीं कुछ और टाइम हो रहा होगा. इतनी बड़ी दुनिया, इतना विविधता वाला भूगोल और सब एक टाइम से कैसे बंधे हुए चल रहे हैं? है न ये रहस्य!
एक आम इंसान दिनभर में घड़ियों की कई बार मदद लेता है. हम रोज ही कई ऐसे काम करते हैं जिन्हें समय पर पूरा करना जरूरी होता है. अलार्म घड़ी रोज हमें सुबह हमारी जरूरत के मुताबिक जगाती है. हम रोज तकरीबन तीन मिनट तक दांत साफ करते हैं. ट्रेडमिल पर व्यायाम, दफ्तर में एंट्री, टाइमलाइन के अंदर टास्क, नाश्ता, खाना, रात का डिनर, मनोरंजन के लिए टीवी के प्रोग्राम, माइक्रोवेव में पक रहा खाना सब समय को फॉलो करते हैं. जहां इनका मैनेजमेंट गड़बड़ाया वहां हमारे दिन-रात का हिसाब गड़बड़ हुआ.
आज कोई भी देश हो, कोई भी राज्य हो, कोई भी कंपनी हो या कोई भी इंसान हो बिना घड़ियों के न तो उसका काम चल सकता है और न ही सिस्टम. वैसे तो घड़ियों का आविष्कार 16वीं सदी की शुरुआत में हुई थी और 18वीं सदी तक दुनिया भर में सूर्य घड़ी से समय देखा और मिलाया जाता था. लेकिन कहानी में असल ट्विस्ट आया यूरोप में 18वीं सदी में औद्योगिक क्रांति आने के बाद जब दुनिया को टाइमजोन मिला. 19वीं शताब्दी के शुरुआत में शहरों में स्थानीय समय सूर्य के मुताबिक तय किया जाता था. जिस वक्त सूरज आसमान में सबसे ज्यादा ऊंचाई पर होता था, उसे मध्याह्न माना जाता था. दो सौ मील की दूरी पर बसे दो शहरों के बीच अलग-अलग समय होता था. ये रेलगाड़ियों का समय तय करने वालों और हर तरह के काम के लिए सिरदर्द साबित होता था. फिर इस सिरदर्द को दूर करने की कोशिश शुरू हुई.
टाइमजोन की शुरुआत की कहानी बहुत ही रोचक है. मशहूर पुस्तक सैपियंस के लेखक मानवशास्त्री युवाल नोआह हरारी उस दौर की व्याख्या ऐसे करते हैं- ‘दरअसल ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति आने के साथ साल 1830 में पहली व्यवसायिक रेल सेवा लिवरपूल और मैनचेस्टर के बीच शुरू हुई. दस साल बाद पहला टाइमटेबल जारी किया गया. तब ट्रेनों की रफ्तार पुरानी घोड़ा गाड़ियों से तेज थी. इसलिए स्थानीय समयों के बीच का विचित्र सा अंतर एक गंभीर समस्या बन गया. ट्रेनें कई इलाकों में जाती थीं लेकिन हर जगह की घड़ी वहां के काम और फैक्ट्रियों में अंधेरे-उजाले के हिसाब से चलती थी. मान लीजिए एक जगह से ट्रेन सुबह 7 बजकर 15 मिनट पर छूटी लेकिन अगले शहर पहुंचने पर वहां का टाइम भी 7.15 ही हो सकता था, उसके अगले शहर में जाने पर 7 भी बज सकता था. ऐसे में कंफ्यूजन ही कंफ्यूजन शुरू हो गया. 1847 में ब्रिटेन की ट्रेन कंपनियों ने आपस में सलाह-मशविरा किया और वे इस बात पर सहमत हुईं कि अब के बाद से सारी टाइमटेबलों पर लिवरपूल, मैनचेस्टर या ग्लासगोव के समयों की बजाय ग्रीनविच वेधशाला का समय अंकित किया जाएगा. 1980 में अंग्रेज सरकार ने कानून बना दिया कि ब्रिटेन के सभी टाइमटेबल ग्रिनविच वेधशाला की घड़ी को फॉलो करेंगे. बाद में अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य के देशों में भी इसे लागू किया और ऐसे ही ग्रिनविच वेधशाला की टाइम यानी ग्रिनविच मिन टाइम यानी GMT दुनिया को मिली’
ग्रिनविच के टाइम से कैसे तय होता है दुनिया का टाइम?
आज के दौर में पूरी दुनिया का समयचक्र यानी टाइमजोन जीएमटी यानी ग्रीनविच मीन टाइम से ही मैच किया जाता है. आप जब ग्लोब या दुनिया के मैप को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि उसमें दो तरह की रेखाएं दिखाई दे रही हैं. एक हॉरिजॉन्टल यानी लेटी हुईं रेखाएं और दूसरी वर्टिकल यानी लंबवत. दुनिया के इस गोल हिस्से को 360 डिग्री में देखा जाता है और देशांतर का हर डिग्री 4 मिनट का अंतर रखता है. यानी आपकी जगह अगर जीएमटी से 15 डिग्री की दूरी पर है तो 15X4= 60 मिनट यानी टाइमजोन में एक घंटे का अंतर होगा. इस रेखा से पूरब की ओर चलेंगे तो घड़ी का समय बढ़ता जाएगा. भारत ग्रिनविच से 82.5 डिग्री की दूरी पर पूर्व में स्थित है और इस तरह से हमारे और ग्रिनविच के टाइमजोन में साढ़े पांच घंटे का अंतर होता है. यानी हमारे यहां का टाइम ब्रिटेन के टाइम से साढ़े पांच घंटे आगे चल रहा होता है.
कहा हैं ग्रिनविच?
ग्रीनविच दक्षिण पूर्वी लंदन का हिस्सा है, जो कभी एक गांव हुआ करता था और वेधशाला के लिए मशहूर हुआ. यही अब ‘रॉयल ऑब्जर्वेटरी’ के नाम से मशहूर है. यहां मध्यकाल से ही खगोलिय घटनाओं का अध्ययन होता था. ब्रिटेन ने जब टाइमजोन बनाया तो इसे धरती के मैप का केंद्र मान लिया, और इसे मैप में 0 डिग्री पर रखा और इसे ही समय का मानक बना दिया. दलील दी गई कि इससे दुनिया की एक बड़ी आबादी को फायदा होगा. कानून बनाकर ग्रिनविच वेधशाला के टाइम को पूरे देश में लागू कर दिया गया. बाद में दुनिया ने भी ग्रिनविच मीन टाइम या GMT को अपने समय के मानक के रूप में अपना लिया.
दुनियाभर में कितने टाइमजोन हैं?
ऐसा भी नहीं है कि दुनियाभर की घड़ियों में एक वक्त पर एक ही टाइम दिख रहा होगा. मौजूदा दौर में दुनिया में 24 टाइम जोन हैं. हर देश अपने राजनीतिक और भौगोलिक लिहाज से अपना टाइमजोन तय करता है. दुनिया में सर्वाधिक टाइम जोन फ्रांस में हैं- 12, रूस में 11, अमेरिका में 9 टाइम जोन हैं. बर्फीले देश अंटार्कटिका की विशालता के कारण वहां 10 टाइम जोन हैं. ब्रिटेन भी 9 टाइम जोन का इस्तेमाल करता है. ऑस्ट्रेलिया में केवल 8 टाइम जोन हैं. यहां के एक हिस्से में जब सुबह के 5 बजते हैं तो उसी समय दूसरे हिस्से में सुबह के 11 बजे चुके होते हैं. छोटे सा देश डेनमार्क भी 5 टाइम जोन में विभाजित है.
किन देशों ने अपनी घड़ी की सुइयां आगे-पीछे खिसकाई?
कई देश मेरिडियन कॉन्फ्रेंस के फैसले के मुताबिक अपनी घड़ी मिलाने के खिलाफ हैं. जैसे अफगानिस्तान और ईरान दो टाइम जोन के बीच पड़ते हैं और उन्होंने दोनों के बीच तीस मिनट का अंतर रखते हुए वक्त तय करने का फैसला किया. कुछ साल पहले वेनेजुएला ने अपना टाइम मानक बदल दिया था. इसी तरह जापानी प्रभाव घटाने के मकसद से उत्तर कोरियाई शासक किम जोंग उन ने 15 अगस्त 2015 से देश की घड़ी आधा घंटा पीछे करा दिया. रूस ने मार्च 2010 में देश के दो टाइमजोन खत्म कर दिए. इतना ही नहीं, 2014 में रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया का विलय करने के बाद इसका टाइम भी बदल दिया ताकि इसके वक्त का मास्को के समय से सामंजस्य हो सके.
भारत में एक ही टाइमजोन क्यों है?
भारत में एक ही टाइम जोन है, इसे आजादी के करीब लागू किया गया. ब्रिटिश शासन के दौरान भारत दो टाइमजोन में बंटा था. 1948 तक कोलकाता का आधिकारिक समय अलग से निर्धारित होता था. आज भारत के पश्चिमी और पूर्वी हिस्से में सूर्योदय के वक्त में 90 मिनट का अंतर होता है जबकि दोनों जगह घड़ी एक सा वक्त बताती है. दफ्तरों को लेकर खासकर पूर्वोत्तर के राज्यों में दिक्कत आती है इसीलिए अलग रास्ता निकाला गया है. पूर्वोत्तर राज्य असम के कई सेक्टर ‘टी गार्डन टाइम’ के मुताबिक चलते हैं जो आधिकारिक घड़ी से एक घंटे पहले है. इसका मकसद सूरज की रोशनी में काम के घंटे बढ़ाना है.
किस ग्रह पर कितने घंटे के होते हैं दिन?
घड़ियों का समयचक्र इंसान के लिए वरदान या मुसीबत?
एक जमाना था जब इंसान के पास घड़ियां नहीं थीं. लोग सूर्य और चांद को देखकर अपने जीवन के नियम तय करते थे. आज घड़ियां होने से हमारा जीवन नियमित जरूर हो गया है लेकिन दुनिया में बहुत सारे लोग घड़ियों से मुक्ति भी चाहते हैं. कई लोगों को लगता है कि घड़ियों और समय की पाबंदी ने उन्हें इंसान की जगह मशीन में बदलकर रख दिया है. खासकर शहरी जीवन शैली में और कॉरपोरेट कल्चर के काम ने इंसान को समय का ज्यादा पाबंद बना दिया है तो मुश्किलें भी बढ़ा दी हैं.
क्यों घड़ियों से मुक्ति चाहते हैं इस आईलैंड के लोग?
दुनिया में एक ऐसी जगह भी है जहां कई-कई महीने तक रात नहीं होती है, तो महीनों तक दिन ही नहीं होता. ये है सोमारोय आइलैंड. नॉर्वे के पश्चिमी इलाके में बसे हुए इस द्वीप पर इस नजारे को देखने के लिए दुनिया भर से टूरिस्ट आते हैं. यहां के लोगों की जिंदगी हमसे-आपसे काफी अलग है. हमारे यहां से अलग भौगोलिक स्थिति होने के कारण यहां 18 मई से 26 जुलाई के बीच पूरे 69 दिन के लिए सूरज डूबता ही नहीं है. इसी तरह नवंबर से जनवरी के बीच 90 दिन तक यहां लॉन्ग पोलर नाइट का भी लोगों को सामना करना पड़ता है. यानी सूरज उगता ही नहीं.
ये 90 दिन यहां के लोग अंधेरे में बिताते हैं. यहां के लोगों के लिए दिन-रात ऐसे हैं कि इनका कोई मतलब ही नहीं रह गया है. नवंबर से जनवरी के बीच जब 24 घंटे रात ही रहती है तो लोग टाइम को फॉलो करना छोड़ ही देते हैं. जो लोग यहां घूमने आते हैं वे भी आइलैंड पर एंट्री करने से पहले अपनी घड़ियों को ब्रिज पर बांध देते हैं और समय से बंधे होकर जीवन जीने से कुछ दिन आजादी को फील करते हैं.
सोचिए टाइमजोन यानी समयचक्र का मतलब इसी दुनिया में अलग-अलग जगह के लोगों के लिए कितना अलग है. किसी को घड़ियों के मुताबिक अपने 24 घंटे की जिंदगी बितानी है तो कोई इस बंधन से आजाद अपने तरीके से जीने का रास्ता अपना रहा है.